Friday 29 May 2015

कोशिश की ज़िन्दगी // गूँज an anthology

कोशिश की ज़िन्दगी।

एहसासों की करवट के साथ,
जैसे-जैसे ख़्वाबों की रात बीत रही थी,
उसी रफ़्तार से जज़्बातों की सहर...
अपने पँख फैला रही थी।

और अगले पल किसी ने दस्तक दी,
बोझिल आँखों से बेपरवाह चादर को हटाया,
ज्यों ही अरमानों का दरवाज़ा खोला,
तो सामने उम्मीद मुस्कुरा रही थी।

इससे पहले कि मैं कुछ बोलता,
उसने कहा निकलो इस चारदीवारी से बाहर,
देखो वक़्त कितना गुज़र गया,
इसलिए आज तुम्हे मेरे साथ चलना है।

मैंने कहा एक शाम वक़्त से इश्क फरमा लूँ,
तो बेशक तुम्हारे साथ चलता हूँ।

उम्मीद ने मुस्कुराते हुए कहा,
वक़्त से न खेलो वह तो जालसाज़ है,
तुम उसके तस्सवुर में उम्र गुज़ार दोगे,
और वह तुम्हे बिन बताये सफ़र पूरा कर लेगा।

तुम चलो मेरे साथ,
आज तुम्हे मुक़ाम से भी मिलवा दूँगा,
वहाँ तुम्हारी दोस्ती भी हो जाएगी,
फिर वक़्त भी वहीँ तुम्हे मिल जायेगा।

मैंने भी दिल से कहा,
आओ एक बाज़ी तो आज़मा ही लेते है।

#abhilekh

Sunday 24 May 2015

मौसम का तकाज़ा // गूँज an anthology

मौसम का तकाज़ा...

वक़्त की चिलचिलाती गर्मी से,
जब कुछ एहसास मुरझाए..
मैंने सोचा क्यूँ न आज,
ख्यालों के फ्रिज को शुरू किया जाए।

क्या पता, इसी बहाने..
कुछ ठंडी उम्मीदों से दिल बहल जाए।

जैसे ही दरवाज़ा खोल..
जज़्बातों की रौशनी चहक उठी।

देखा, उम्मीदों की टोकरी भरी पड़ी थी..
मैंने सोचा कुछ हल्का ही सही..
अभी सिर्फ़ एक टुकड़े को उठाया था..
की बाकियों ने कयास वाली शक्ल बना ली।

मुझे लगा शायद यह ज़्यादती हो जाएगी..
इसलिए वापस रख दिया।

बस यादों से भरी एक बोतल ली..
दरवाज़ा बंद किया और वापस कुर्सी पर आ गया।

गटागट उतार ली थी पूरी बोतल ज़हन में..
पूरी बोतल खाली होने के बाद एक पल में ऐसा लगा..
जैसे कितनी ज़िन्दगी जी ली है मैंने,
और...
आगे अभी और कितनी ज़िन्दगी है।।

#abhilekh

Thursday 14 May 2015

नयी जड़ें // गूँज an anthology

नयी जड़ें...

खोखले उसूलों से पनपी है,
कुछ आदर्श की नयी पत्तियाँ..
सूखे शाखों सी शख्सियत को,
फ़िर भी ख़ुद पर गुमान है।

वक़्त की बारिश में भीगने के बावजूद,
संकृड़ता की हवा में झूमते है..
कुछ ऐसे ही झुरमुट है इनके आस-पास,
इनको इसी बाग़ पर गुमान है।

ज़मीं के नीचे तो हकीक़त की ही जड़ें थी,
लेकिन उम्र और बदलते वक़्त के साथ,
दकियानूसी सोच ने अपने को फैला लिया है।

अब इसे उखाड़ें तो जड़ों का अफ़सोस होगा,
इसलिए पहले जड़ों की नुमाइश लगाते है,
तब नए सृजन का बखूबी संचार होगा।।

#abhilekh

Wednesday 6 May 2015

दुआ // गूँज an anthology

दुआ...

बहुत कम सी लगती है ज़िन्दगी..
जब गुज़रे पलों के बारे में सोचता हूँ।

काश, यह दिन जितने महीने भी होते..
अक्सर तारीखों को देख सोचता हूँ।

हर रोज़ ज़िन्दगी अपने तेवर बदलती है..
और ज़िन्दगी को मैं अपने अंदाज़ से जीता हूँ।

12 घंटों का वक़्त जब दुबारा होकर 24 है..
फ़िर मैं ज़िन्दगी को दुबारा क्यूँ नही जी सकता हूँ।

सुबह का एक दिन और अगले दिन की रात हो..
एक ऐसी दुनिया के बारे में सोचा करता हूँ।

सूरज की रौशनी से रात और चाँद का दिन हो..
एक ऐसे मौसम की कल्पना करता रहता हूँ।

बुतों के बीच की ज़िन्दगी को जी लिया मैंने..
अब एक ज़िन्दगी ख़ुदा के रूबरू होने की दुआ करता हूँ।।

#abhilekh

Sunday 26 April 2015

दुआ का बाज़ार // गूँज an anthology

दुआ का बाज़ार...

बज़्म-ए-दुआ का मंज़र कल देखा मैंने,
फटी चादर में लिपटी अमीरी देखा मैंने।

मैंने सोचा चंद सिक्कें उछाल दूँ लेकिन,
ग़ुरबत-ए-हुजूम का बाज़ार देखा मैंने।

सोचा सजदे से पहले इनकी दुआ बटोरूँ,
लेकिन दुआओं पर दाम लगे देखा मैंने।

रेवड़ियों की एक थैली मैंने सामने रख दी,
उन टुकड़ों को बेईज्ज़त होते देखा मैंने।

दुआ पढ़कर जब निकला ख़ुदा के घर से,
मायूसी के लिबास में लालच देखा मैंने।

इस बार बेशर्म सिक्कों को उछाल दिया,
फ़िर सतरंगी दुआओं का नज़ारा देखा मैंने।।

#abhilekh


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Tuesday 21 April 2015

यह ज़िन्दगी...। // गूँज an anthology

यह ज़िन्दगी...

कोशिश की सीढ़ियों पर,
जब ख़्वाहिशें चढ़ती है..
उम्मीदों के मुंडेर तक पहुचने के लिए,
एक जोश रहता है..
एक चाह होती है।
जैसे, शायद असमानों को छूने का,
या बुलंदियों पर होने का..
या दूरियों को जीने का..
या फिर फ़लक से ज़मीं का नज़ारा देखने का।
लेकिन इन्हें चिलचिलाती संघर्षों से परहेज़ होता है..
क्यूँकी गुनगुनी मेहनत ज़्यादा मज़ा देती है।
....और जब उतर कर आओ,
हकीक़त की ज़मीं पर,
फ़िर ख़्वाहिशों का मजमा समझ में आता है।
कैसी है न यह ज़िन्दगी...
अनिश्चित, बेपरवाह खुद..
और इलज़ाम आदतों के सर पर थोप जाती है।

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Wednesday 15 April 2015

पैसों की घुटन // गूँज an anthology

पैसों की घुटन।

धम्म से गिरा एक सिक्का दानपेटी में,
और अन्य सिक्कों को उसकी मौजूदगी खल गयी।
नया मुर्गा, नयी मन्नत, नया क़ैदी,
कुछ ऐसी खुसर-फुसर आपस में शुरू हो गयी।
बाहर मंदिर का घंटा फिर ज़ोर से बजा,
सिक्कों की खीज में पुरानी सी नोट भी पिस गयी।
कहने लगे क्या इंसान है यार,
पहले अहिंसा का पाठ पढ़ाते है..
और अहिंसा के ठेकेदार को हम पर छापकर,
हमें हिंसा की वजह बताते है।
अब तो ठेंगा भी बना दिया गया है,
फ़िर भी बाझ नहीं आते है।
1 रुपए में 1लाख ख़्वाहिशें,
रोज़ गिनवा के चले जाते है।
1 घंटी की झंकार में भगवान को भी,
एहसान जता कर चले जाते है।
आते है मंदिर लेकिन चप्पल की चिंता..
और मोबाइल की घंटियों से मंत्र पढ़ जाते है।
आज जो हम लोग यहाँ बहक जाएँ,
तो पुजारी की शामत भी खनक जाएगी।
लेकिन कमबख्त़ फ़िर यहाँ,
लूट-खसूट और धर्म की महाभारत छिड़ जाएगी।
चलो छोड़ो, अब हमसे ही इनकी औक़ात है..
वरना आज क्या इंसान और क्या इनकी जात है।।

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