Saturday 27 December 2014

अंदाज़-ए-मोहब्बत / काव्यशाला an anthology

अंदाज़-ए-मोहब्बत।

मादक हो, बहुत शोख हो,
तितली से भी ज़्यादा तुम चँचल हो।

कोमल हो, बहुत मासूम हो,
ओस की बूँद से भी ज्यादा नाज़ुक हो।

यह तुम्हारे अलसाये से गेसू,
बेपरवाह हो तुम्हारे रुखसारों पर,
बलखाते है, तो कभी इतराते है।

अपनी शरारती अदाओं से,
हमें भी अक़्सर बहकाते है।

थामता हूँ जब भी तुम्हें,
वक़्त को जैसे पर लग जाते है।

सोचता हूँ रोज़ तुम्हे चूमूँ,
और मेरे इस ख्याल भर से,
ख़ुदा के भी तेवर बदल जाते है।

Monday 22 December 2014

ख्याल-ए-इश्क / काव्यशाला an anthology

ख्याल-ए-इश्क़।

मुख़्तसर सी मुलाक़ातों का सिलसिला देखो,
कोई मेरे मुक़द्दर में अचानक से शामिल हो गया।

हम लम्हें गुज़ारते रहें उनके तस्सवुर में,
गुज़िश्ता पलों के साथ कोई मेरा हमदम हो गया।

कल तक कोई ख़्वाबों-ख़यालों में भी नही था,
आज कैसे एक पल में वह मेरा हम-साया हो गया।

अब तो डूबे हैं उनकी आशिक़ी में कुछ ऐसे,
इबादत-ए-इश्क़ में मेरा सनम ही मेरा ख़ुदा हो गया।

Friday 19 December 2014

ज़ख्म / काव्यशाला an anthology

ज़ख्म।

लिबास पहन कर अपने ज़ख्मों को छुपा लिया,
फिर उन्ही लिबास ने मेरे ज़ख्मों को कुरेद दिया।

अब तो आदत सी बन गयी है ज़ख्मों को जीने की,
इसलिए दवा और दुआओं से खुद ही परहेज़ कर लिया।

अब रिस्ते खून और दर्द सिर्फ़ अपने से लगते है,
इसलिए पुराने ज़ख्मों को भी नासूर ही बना रहने दिया।

बेशकीमती से है मेरे ग़म और यह सारे ज़ख्म,
कुछ उधार मिले तो कुछ खरीद के रख लिया।

दुआएँ भी आती रही मरहम लगाने को हर वक़्त,
मैंने ही हर दुआ के बाद ख़ुद को काँटों में उलझा लिया।

Wednesday 10 December 2014

...... बस तुम्हें चाहता हूँ। / काव्यशाला an anthology

……बस तुम्हें चाहता हूँ।

आज कुछ रुमनियत लिखना चाहता हूँ,
तुम्हें अपने लफ़्ज़ों में पिरोना चाहता हूँ।

ख्याल हो तुम मेरा एहसास हो तुम,
इस मोहब्बत को ताउम्र जीना चाहता हूँ।

इबादत हो तुम मेरा ख़ुदा हो तुम,
क़ल्मा बनाकर तुम्हें रोज़ पढ़ना चाहता हूँ।

मिलते है रोज़ और भी हुस्न नज़ारों में,
सिर्फ तुम्हें अपनी परछायीं बनाना चाहता हूँ।

अब आकर थाम लो मेरा हाथ उम्र भर के लिए,
जहाँ में मोहब्बत का अंदाज़ दिखाना चाहता हूँ।

Tuesday 2 December 2014

इज़हार-ए-इश्क़ / काव्यशाला an anthology

इज़हार-ए-इश्क़।

सुनो, कुछ तुमसे कहना चाहता हूँ..
कुछ ख़ास नही, बस इश्क़ का इज़हार करना चाहता हूँ।

तुम्हे तो वैसे भी मेरे दिल की खबर है..
अब तुम्हारे दिल में अपनी धड़कनों को सुनना चाहता हूँ।

एक बार मेरे करीब आकर तो देखो..
मैं तो सिर्फ़ तुम्हे अपनी रूह बनाना चाहता हूँ।

जानता हूँ हुस्न के नाज़-ओ-नखरे होते है..
फ़िर भी अपनी आशिक़ी को आज़माना चाहता हूँ।

तुम बेशक़ अपने अंदाज़ में मेरे इश्क़ को आज़माना,
मैं तो बस अपनी इबादत का असर देखना चाहता हूँ।

Thursday 14 August 2014

ख़याल ... कुछ यूँ भी।

ख़याल... कुछ यूँ भी।

आदतन फिर वही गलतियाँ दोहराने का ख़याल आया है,
किसी शाख़ से गिर कर किसी दिल-ए-किताब में खोने का ख़याल आया है।

खुशमिजाज़ी में इतने दिल तोड़ दिए मैंने,
आज जाने क्यूँ बेवजह रोने का ख़याल है।

जागती रातों को दिन सा गुज़ार लिया मैंने,
आज मुद्दतों बाद सोने का ख़याल आया है।

जबसे जिस्मानी रिश्तो की लिबास उतार दी है,
सिर्फ परछाइयों से लिपटने का ख़याल आया है।

देख लिया इश्क को हुस्न के चौराहे पे भटकते हुए,
इसलिए आवारगी अपनाने का ख़याल आया है।।

A Published Anthology निर्झरिका 5/5

सियासत के रँग।

सियासत की नयी राह फिर से बनने लगी है,
त्योहारों से पहले ही दीवारों की पपड़ी उतरने लगी है।

बोल-वचन ही है असली स्वराज हमारा,
करनी के वक़्त ख़ुद की पतलून खिसकने लगी है।

अब दूध-भात भी नही मानते इस खेल में,
बहरुपियों की जमात वही पुराने करतब दिखाने लगी है।

बदलते रहते है यह मौसम वक़्त-बेवक्त,
नए साज़ पर फिर वही पुरानी धुन बजने लगी है।

विकल्पों के दौर में किसे बेहतर बताएँ,
जब हर छुट के बाद हर कीमत एक सी लगने लगी है।

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