Thursday 27 March 2014

धर्म और इंसानियत। - Published Poetry

धर्म और इंसानियत।

धर्म का जन्म पहले हुआ या इंसानियत पहले आयी,
कुछ इसी उलझन में आज की सामाजिक व्यवस्था है बिगड़ गयी।
धर्म के नाम पर इन्सान आडम्बर से बाझ नही आते,
और अपनी ही इंसानियत को बेशर्मी से सरेआम है बेच खाते।
धर्म की आड़ में अपने समाज में कितने कुकर्म हो रहे है,
और इंसान अपनी ही बिरादरी में दिनोंदिन धूमिल हो रहे है।


इन्सान खुद तो बँट गया ना जाने कितने वर्गों में,
और भगवान को भी बाँट लिया अपने अनुसार धर्मों में।
बस उपदेश भर है की इश्वर एक है,
दरअसल में विडम्बना यह है कि इंसान अनेक है।
पल भर में पत्थर और शुन्य को सब कुछ मान लेते है,
लेकिन इंसानियत के वक़्त जाति और धर्म पहले गिने जाते है।
ख़ुदा ने दुनिया में इंसान बनाया कुछ सोचकर,
और इंसानों ने दुनिया बदल दी धर्मों के नाम पर।


आज भाईचारा किताबों में सिमट गयी है,
सिर्फ ग्रंथों की लड़ाई सर्वोपरि हो गयी है।
खून का रंग भले सबका सुर्ख होता है,
लेकिन उसका अस्तित्व घायल जिस्म से होता है।
जहाँ धर्म ने आपसी सौहार्द के बजाय नफरत को जन्म दिया है,
वहीँ इंसान ने धर्म को विभित्स बना उसे कलंकित कर दिया है।


This is a published poetry, so you can refer below link also:

http://prabhatpunj.inprabhat.com/sahityasamvad/%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A4-%E0%A5%A4.html

Sunday 16 March 2014

मेरे होली के रँग।

रँगों के महफ़िल में हम क्या तेरा ज़िक्र करें,
जब हर ज़र्रे में मुझे बस तेरा ही अक़्स दिखा।

कभी सुनहली गेसुओं से तूने समां में रँग बिखेरा,
तो कभी अपने कत्थई आँखों का जाम उड़ेला।

तेरे गुलाबी गालों पर दमकती धुप की क्या बात करें,
जब लाल रँग का वजूद सिर्फ़ तेरे लबों से निखरा।

क्यूँ न होली के बहाने इस बार फिर नया रंग घोलें,
मुझे तो हर रँग का फ़लसफ़ा बस तुझसे ही मिला।

Saturday 15 March 2014

रिश्ते...

रिश्ते।

ख़ुदा की बनायी दुनिया में,
लोगों का लगा हुआ हुजूम है,
जहाँ जाने-अनजाने में,
ना जाने कितने रिश्ते बन जाते है।

कभी अनजानों की शक्ल लिए,
कोई परिचित से मिल जाते है,
तो कभी अपने ही अपना रंग बदले,
बेगानों की क़तार मे नज़र आते है।

संसार में इंसान के पैदा होते ही,
रिश्तों के मज़हब घर कर जाते है,
और फिर इन्ही रिश्तों की गिरफ्त में,
ख़ुद की साँसों के कर्ज़दार हो जाते है।

कभी भावनाओं की बेपरवाही में,
रिश्तों के वास्ते गिनाये जाते है,
तो कभी इन्ही रिश्तों की आड़ में,
स्वार्थ सिद्धि के उपाय बनाये जाते है।

ताउम्र मतलबी रिश्तों के पुलिंदें में,
इन्सान लगातार गोते लगाता रहता है,
दूसरों को खुश करने क चक्कर में,
खुद के वजूद की हत्या करता जाता है।

जज़्बातों के कठघरे में,
रिश्तों की पैरवी चलती रहती है,
इच्छाओं की इतराते क़दमों में,
उसूलों की बेड़ियाँ डाली जाती है।

अपने जन्म से लेकर मरने में,
इंसान एक सफ़र तय कर जाता है,
लेकिन रिश्तों की होड़ में,
खुद को सवालों से घिरा पाता है।

इस ज़िन्दगी के बड़े सफ़र में,
सभी रिश्ते अपनी अह्मिअत जताते है,
कभी समूह तो कभी तन्हाई में,
हर पहचान का कारोबार किये जाते है।

Sunday 9 March 2014

एक आइना पारदर्शी सा...।

एक आइना पारदर्शी सा..।

एक आइना जो पारदर्शी सा है,
मेरे ही सामने लगा रहता है,
बुत सा मैं खुद उसे देखता हूँ,
हरकतें उसमें मेरा अक़्स करता है।

सामने जब मैं खुद हूँ इसके,
तो फ़िर आईने में कौन दिखता है,
जो मेरा ही प्रतिबिम्ब बनकर,
न जाने किसकी नक़्ल करता है।

छू भी नही सकता उसे,
कुछ कह भी नही सकता उससे,
फ़िर क्यूँ सिर्फ यह अक़्स,
हरपल मेरे ही रूबरू रहता है।

आइना तो सच बोलता है जब,
फ़िर मुझसे कुछ क्यूँ नही कहता है,
आइना तोड़ कर खत्म तो कर दूँ सब,
पर टुकड़ों में मेरा ही अक़्स रहता है।

Wednesday 5 March 2014

ऐसा है इश्क़...।

ऐसा है इश्क़...।

अच्छा मुकाम आया है अब अपने इश्क़ में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

एक गुलिस्ताँ सा बना लिया है इर्द-गिर्द अपने,
इस क़दर शामिल है ज़िन्दगी में महबूब अपने,
तमाम फिज़ा जैसे डूबी हो रँग-ए-इश्क़ में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

चिलमन-ए-हुस्न से उसने आज,
आफ़ताबी सा किया है मेरा जहाँ आज,
मिल गयी हो जैसे कायनात मुझे इश्क़ में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

नाज़ तो उनके ख़ुदा ने भी खूब उठाये होंगे,
सितारों ने भी न जाने कितने किस्से सुनाये होंगे,
हम तो मशगुल रहते है उनके इबादत-ए-इश्क में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

Sunday 2 March 2014

तेरी काशिश...

तेरी गली का रास्ता कुछ ऐसा है की बेवजह कदम चले जाते है,
हम बेपरवाही में बढे जाते है और तेरे दरवाज़े पर ठहर जाते है।

तुमसे मिलना किस्मत था फ़िर हर मुलाक़ात ज़िन्दगी बन गयी,
अब तुम खुद देखो कैसे तुम्हारी तलब मेरी बंदिगी बन गयी।

हर मौसम का मज़ा दोगुना हो जाता है जब तुम मेरे होठों पर खिलती हो,
तमाम खुशियाँ अंगड़ाई लेती है जब तुम मेरे बाँहों में मचलती हो।

Wednesday 26 February 2014

कलम और स्याही....

कलम और स्याही....

सोच की कलम और जज्बातों की स्याही से,
कभी पन्नों पर एहसासों का इन्द्रधनुष खिलता था।

कभी लिख कर तो कभी चित्रित कर,
हर रंग का किस्सा उन पन्नों पर उकेरता था।

अब वही स्याही कुछ ग़मज़दा सी हो गयी,
जिससे कभी मोहब्बत के अफ़साने लिखते थे।

अब उस कलम की भी हिम्मत टूट गयी,
जिससे कभी रूमानियत का समां बुनते थे।

आख़िरकार कलम ने पूछा स्याही से,
क्या हमारे रिश्ते का यही वजूद लिखा था।

स्याही ने आह भरकर जवाब में कहा,
पन्नों पर बिखरे रिश्तों का यही मंज़र होना था।

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