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Friday 12 June 2015

4 // गूँज an anthology

4

4 पल की ज़िन्दगी का सफ़र,
4 पैरों की चारपाई से शुरू होती है...
और, 4 काँधों पर ख़त्म होती है।

4 कोनों से बनी यह दुनिया,
4 दीवारों में सिमटी होती है...
और, 4 इंसानों के बीच बँटी होती है।

4 पल की ज़िन्दगी में,
4 ख़याल बेचैन करते है..
क्यूँकी, 4 रिश्तों में ज़िन्दगी उलझी होती है।

4 धर्म के आडम्बर में
4 दुनिया उलझी पड़ी है...
क्यूँकी, 4 इंसानों  में एक लहू की कमी होती है।

अगर यह गिनती बढ़ भी जाए तो क्या होगा..
और अगर कम भी हो जाये तो क्या बदलेगा..
.... सिर्फ एक नया कोलाहल ही होगा।।

#Abhilekh

Thursday 11 June 2015

Smartphone // गूँज an anthology

Smartphone

Smartphone सी आदतें इंसान की हो गयी,
एक ऊँगली की कुरेद से कितनी परतें खुल गयी।

Apps की गलियों में गुम है कितने ख़याल,
बेवजह रिश्तों की अहमियत परतों में गुम हो गयी।

वक़्त सा बेपरवाह है animated wallpaper,
फिर भी निरंतरता में उसकी दुनिया है सिमट गयी।

हाथों में पूरा जहाँ लिए घूमता हूँ अकेला,
Chat apps की व्यस्तता मेरी ज़िन्दगी हो गयी।

अब हर मौके पर रिश्ते अपनी नीयत बदलते है,
क्यूँकी Updated version की सबको लत लग गयी।

जहाँ का शोर अब मुझे क़तई नही काटता,
क्यूँकी mp3/avi से दुनिया मेरी रंगीन हो गयी।

हर smartphone का अपना ही दौर है,
क्यूँकी इंसानों की औक़ात अब हाथों में आ गयी।

#abhilekh

Tuesday 9 June 2015

ख़ामोशी // गूँज an anthology

ख़ामोशी।

कुछ बुतों में रूह को डालकर,
ख़ुदा ने जहाँ में इंसान को बना दिया।
लेकिन बदलते वक़्त में...
इंसान ने लिबास को पहचान बना लिया।
शायद इसलिए... रूह तो वही रह गयी,
लेकिन इंसानियत की रँगत बदल गयी।

अब बिन कपड़ों के वह बेशर्म है,
और कपड़ों में ढकी पूरी शर्म है।
अब फ़रेब भी करें तो कपड़े बदल लें...
और खून भी करें तो फ़ौरन उसे धो लें।
आज ख़ुदा... ख़ुद से शर्मसार है,
क्यूँकी उसकी ही बनायी दुनिया तार-तार है।

ख़ुदा की दुहाई अब बाज़ार में खुला धंधा है,
क्यूँकी इंसान बिन समझे अब धर्म में अँधा है।
कब्रिस्तान के सन्नाटों में भी...
इंसानों का ही शोरगुल सुनता हूँ।
एक लम्बी ख़ामोशी के लिए...अब,
ख़ुदा से एक जलज़ले की दुआ करता हूँ।

#abhilekh

Friday 29 May 2015

कोशिश की ज़िन्दगी // गूँज an anthology

कोशिश की ज़िन्दगी।

एहसासों की करवट के साथ,
जैसे-जैसे ख़्वाबों की रात बीत रही थी,
उसी रफ़्तार से जज़्बातों की सहर...
अपने पँख फैला रही थी।

और अगले पल किसी ने दस्तक दी,
बोझिल आँखों से बेपरवाह चादर को हटाया,
ज्यों ही अरमानों का दरवाज़ा खोला,
तो सामने उम्मीद मुस्कुरा रही थी।

इससे पहले कि मैं कुछ बोलता,
उसने कहा निकलो इस चारदीवारी से बाहर,
देखो वक़्त कितना गुज़र गया,
इसलिए आज तुम्हे मेरे साथ चलना है।

मैंने कहा एक शाम वक़्त से इश्क फरमा लूँ,
तो बेशक तुम्हारे साथ चलता हूँ।

उम्मीद ने मुस्कुराते हुए कहा,
वक़्त से न खेलो वह तो जालसाज़ है,
तुम उसके तस्सवुर में उम्र गुज़ार दोगे,
और वह तुम्हे बिन बताये सफ़र पूरा कर लेगा।

तुम चलो मेरे साथ,
आज तुम्हे मुक़ाम से भी मिलवा दूँगा,
वहाँ तुम्हारी दोस्ती भी हो जाएगी,
फिर वक़्त भी वहीँ तुम्हे मिल जायेगा।

मैंने भी दिल से कहा,
आओ एक बाज़ी तो आज़मा ही लेते है।

#abhilekh

Sunday 24 May 2015

मौसम का तकाज़ा // गूँज an anthology

मौसम का तकाज़ा...

वक़्त की चिलचिलाती गर्मी से,
जब कुछ एहसास मुरझाए..
मैंने सोचा क्यूँ न आज,
ख्यालों के फ्रिज को शुरू किया जाए।

क्या पता, इसी बहाने..
कुछ ठंडी उम्मीदों से दिल बहल जाए।

जैसे ही दरवाज़ा खोल..
जज़्बातों की रौशनी चहक उठी।

देखा, उम्मीदों की टोकरी भरी पड़ी थी..
मैंने सोचा कुछ हल्का ही सही..
अभी सिर्फ़ एक टुकड़े को उठाया था..
की बाकियों ने कयास वाली शक्ल बना ली।

मुझे लगा शायद यह ज़्यादती हो जाएगी..
इसलिए वापस रख दिया।

बस यादों से भरी एक बोतल ली..
दरवाज़ा बंद किया और वापस कुर्सी पर आ गया।

गटागट उतार ली थी पूरी बोतल ज़हन में..
पूरी बोतल खाली होने के बाद एक पल में ऐसा लगा..
जैसे कितनी ज़िन्दगी जी ली है मैंने,
और...
आगे अभी और कितनी ज़िन्दगी है।।

#abhilekh

Thursday 14 May 2015

नयी जड़ें // गूँज an anthology

नयी जड़ें...

खोखले उसूलों से पनपी है,
कुछ आदर्श की नयी पत्तियाँ..
सूखे शाखों सी शख्सियत को,
फ़िर भी ख़ुद पर गुमान है।

वक़्त की बारिश में भीगने के बावजूद,
संकृड़ता की हवा में झूमते है..
कुछ ऐसे ही झुरमुट है इनके आस-पास,
इनको इसी बाग़ पर गुमान है।

ज़मीं के नीचे तो हकीक़त की ही जड़ें थी,
लेकिन उम्र और बदलते वक़्त के साथ,
दकियानूसी सोच ने अपने को फैला लिया है।

अब इसे उखाड़ें तो जड़ों का अफ़सोस होगा,
इसलिए पहले जड़ों की नुमाइश लगाते है,
तब नए सृजन का बखूबी संचार होगा।।

#abhilekh

Wednesday 6 May 2015

दुआ // गूँज an anthology

दुआ...

बहुत कम सी लगती है ज़िन्दगी..
जब गुज़रे पलों के बारे में सोचता हूँ।

काश, यह दिन जितने महीने भी होते..
अक्सर तारीखों को देख सोचता हूँ।

हर रोज़ ज़िन्दगी अपने तेवर बदलती है..
और ज़िन्दगी को मैं अपने अंदाज़ से जीता हूँ।

12 घंटों का वक़्त जब दुबारा होकर 24 है..
फ़िर मैं ज़िन्दगी को दुबारा क्यूँ नही जी सकता हूँ।

सुबह का एक दिन और अगले दिन की रात हो..
एक ऐसी दुनिया के बारे में सोचा करता हूँ।

सूरज की रौशनी से रात और चाँद का दिन हो..
एक ऐसे मौसम की कल्पना करता रहता हूँ।

बुतों के बीच की ज़िन्दगी को जी लिया मैंने..
अब एक ज़िन्दगी ख़ुदा के रूबरू होने की दुआ करता हूँ।।

#abhilekh

Sunday 26 April 2015

दुआ का बाज़ार // गूँज an anthology

दुआ का बाज़ार...

बज़्म-ए-दुआ का मंज़र कल देखा मैंने,
फटी चादर में लिपटी अमीरी देखा मैंने।

मैंने सोचा चंद सिक्कें उछाल दूँ लेकिन,
ग़ुरबत-ए-हुजूम का बाज़ार देखा मैंने।

सोचा सजदे से पहले इनकी दुआ बटोरूँ,
लेकिन दुआओं पर दाम लगे देखा मैंने।

रेवड़ियों की एक थैली मैंने सामने रख दी,
उन टुकड़ों को बेईज्ज़त होते देखा मैंने।

दुआ पढ़कर जब निकला ख़ुदा के घर से,
मायूसी के लिबास में लालच देखा मैंने।

इस बार बेशर्म सिक्कों को उछाल दिया,
फ़िर सतरंगी दुआओं का नज़ारा देखा मैंने।।

#abhilekh


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Tuesday 21 April 2015

यह ज़िन्दगी...। // गूँज an anthology

यह ज़िन्दगी...

कोशिश की सीढ़ियों पर,
जब ख़्वाहिशें चढ़ती है..
उम्मीदों के मुंडेर तक पहुचने के लिए,
एक जोश रहता है..
एक चाह होती है।
जैसे, शायद असमानों को छूने का,
या बुलंदियों पर होने का..
या दूरियों को जीने का..
या फिर फ़लक से ज़मीं का नज़ारा देखने का।
लेकिन इन्हें चिलचिलाती संघर्षों से परहेज़ होता है..
क्यूँकी गुनगुनी मेहनत ज़्यादा मज़ा देती है।
....और जब उतर कर आओ,
हकीक़त की ज़मीं पर,
फ़िर ख़्वाहिशों का मजमा समझ में आता है।
कैसी है न यह ज़िन्दगी...
अनिश्चित, बेपरवाह खुद..
और इलज़ाम आदतों के सर पर थोप जाती है।

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Wednesday 15 April 2015

पैसों की घुटन // गूँज an anthology

पैसों की घुटन।

धम्म से गिरा एक सिक्का दानपेटी में,
और अन्य सिक्कों को उसकी मौजूदगी खल गयी।
नया मुर्गा, नयी मन्नत, नया क़ैदी,
कुछ ऐसी खुसर-फुसर आपस में शुरू हो गयी।
बाहर मंदिर का घंटा फिर ज़ोर से बजा,
सिक्कों की खीज में पुरानी सी नोट भी पिस गयी।
कहने लगे क्या इंसान है यार,
पहले अहिंसा का पाठ पढ़ाते है..
और अहिंसा के ठेकेदार को हम पर छापकर,
हमें हिंसा की वजह बताते है।
अब तो ठेंगा भी बना दिया गया है,
फ़िर भी बाझ नहीं आते है।
1 रुपए में 1लाख ख़्वाहिशें,
रोज़ गिनवा के चले जाते है।
1 घंटी की झंकार में भगवान को भी,
एहसान जता कर चले जाते है।
आते है मंदिर लेकिन चप्पल की चिंता..
और मोबाइल की घंटियों से मंत्र पढ़ जाते है।
आज जो हम लोग यहाँ बहक जाएँ,
तो पुजारी की शामत भी खनक जाएगी।
लेकिन कमबख्त़ फ़िर यहाँ,
लूट-खसूट और धर्म की महाभारत छिड़ जाएगी।
चलो छोड़ो, अब हमसे ही इनकी औक़ात है..
वरना आज क्या इंसान और क्या इनकी जात है।।

#Abhilekh

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Saturday 27 December 2014

अंदाज़-ए-मोहब्बत / काव्यशाला an anthology

अंदाज़-ए-मोहब्बत।

मादक हो, बहुत शोख हो,
तितली से भी ज़्यादा तुम चँचल हो।

कोमल हो, बहुत मासूम हो,
ओस की बूँद से भी ज्यादा नाज़ुक हो।

यह तुम्हारे अलसाये से गेसू,
बेपरवाह हो तुम्हारे रुखसारों पर,
बलखाते है, तो कभी इतराते है।

अपनी शरारती अदाओं से,
हमें भी अक़्सर बहकाते है।

थामता हूँ जब भी तुम्हें,
वक़्त को जैसे पर लग जाते है।

सोचता हूँ रोज़ तुम्हे चूमूँ,
और मेरे इस ख्याल भर से,
ख़ुदा के भी तेवर बदल जाते है।

Monday 22 December 2014

ख्याल-ए-इश्क / काव्यशाला an anthology

ख्याल-ए-इश्क़।

मुख़्तसर सी मुलाक़ातों का सिलसिला देखो,
कोई मेरे मुक़द्दर में अचानक से शामिल हो गया।

हम लम्हें गुज़ारते रहें उनके तस्सवुर में,
गुज़िश्ता पलों के साथ कोई मेरा हमदम हो गया।

कल तक कोई ख़्वाबों-ख़यालों में भी नही था,
आज कैसे एक पल में वह मेरा हम-साया हो गया।

अब तो डूबे हैं उनकी आशिक़ी में कुछ ऐसे,
इबादत-ए-इश्क़ में मेरा सनम ही मेरा ख़ुदा हो गया।

Friday 19 December 2014

ज़ख्म / काव्यशाला an anthology

ज़ख्म।

लिबास पहन कर अपने ज़ख्मों को छुपा लिया,
फिर उन्ही लिबास ने मेरे ज़ख्मों को कुरेद दिया।

अब तो आदत सी बन गयी है ज़ख्मों को जीने की,
इसलिए दवा और दुआओं से खुद ही परहेज़ कर लिया।

अब रिस्ते खून और दर्द सिर्फ़ अपने से लगते है,
इसलिए पुराने ज़ख्मों को भी नासूर ही बना रहने दिया।

बेशकीमती से है मेरे ग़म और यह सारे ज़ख्म,
कुछ उधार मिले तो कुछ खरीद के रख लिया।

दुआएँ भी आती रही मरहम लगाने को हर वक़्त,
मैंने ही हर दुआ के बाद ख़ुद को काँटों में उलझा लिया।

Wednesday 10 December 2014

...... बस तुम्हें चाहता हूँ। / काव्यशाला an anthology

……बस तुम्हें चाहता हूँ।

आज कुछ रुमनियत लिखना चाहता हूँ,
तुम्हें अपने लफ़्ज़ों में पिरोना चाहता हूँ।

ख्याल हो तुम मेरा एहसास हो तुम,
इस मोहब्बत को ताउम्र जीना चाहता हूँ।

इबादत हो तुम मेरा ख़ुदा हो तुम,
क़ल्मा बनाकर तुम्हें रोज़ पढ़ना चाहता हूँ।

मिलते है रोज़ और भी हुस्न नज़ारों में,
सिर्फ तुम्हें अपनी परछायीं बनाना चाहता हूँ।

अब आकर थाम लो मेरा हाथ उम्र भर के लिए,
जहाँ में मोहब्बत का अंदाज़ दिखाना चाहता हूँ।

Tuesday 2 December 2014

इज़हार-ए-इश्क़ / काव्यशाला an anthology

इज़हार-ए-इश्क़।

सुनो, कुछ तुमसे कहना चाहता हूँ..
कुछ ख़ास नही, बस इश्क़ का इज़हार करना चाहता हूँ।

तुम्हे तो वैसे भी मेरे दिल की खबर है..
अब तुम्हारे दिल में अपनी धड़कनों को सुनना चाहता हूँ।

एक बार मेरे करीब आकर तो देखो..
मैं तो सिर्फ़ तुम्हे अपनी रूह बनाना चाहता हूँ।

जानता हूँ हुस्न के नाज़-ओ-नखरे होते है..
फ़िर भी अपनी आशिक़ी को आज़माना चाहता हूँ।

तुम बेशक़ अपने अंदाज़ में मेरे इश्क़ को आज़माना,
मैं तो बस अपनी इबादत का असर देखना चाहता हूँ।

Thursday 14 August 2014

ख़याल ... कुछ यूँ भी।

ख़याल... कुछ यूँ भी।

आदतन फिर वही गलतियाँ दोहराने का ख़याल आया है,
किसी शाख़ से गिर कर किसी दिल-ए-किताब में खोने का ख़याल आया है।

खुशमिजाज़ी में इतने दिल तोड़ दिए मैंने,
आज जाने क्यूँ बेवजह रोने का ख़याल है।

जागती रातों को दिन सा गुज़ार लिया मैंने,
आज मुद्दतों बाद सोने का ख़याल आया है।

जबसे जिस्मानी रिश्तो की लिबास उतार दी है,
सिर्फ परछाइयों से लिपटने का ख़याल आया है।

देख लिया इश्क को हुस्न के चौराहे पे भटकते हुए,
इसलिए आवारगी अपनाने का ख़याल आया है।।

A Published Anthology निर्झरिका 5/5

सियासत के रँग।

सियासत की नयी राह फिर से बनने लगी है,
त्योहारों से पहले ही दीवारों की पपड़ी उतरने लगी है।

बोल-वचन ही है असली स्वराज हमारा,
करनी के वक़्त ख़ुद की पतलून खिसकने लगी है।

अब दूध-भात भी नही मानते इस खेल में,
बहरुपियों की जमात वही पुराने करतब दिखाने लगी है।

बदलते रहते है यह मौसम वक़्त-बेवक्त,
नए साज़ पर फिर वही पुरानी धुन बजने लगी है।

विकल्पों के दौर में किसे बेहतर बताएँ,
जब हर छुट के बाद हर कीमत एक सी लगने लगी है।

A Published Anthology निर्झरिका 4/5

....परिंदों की तरह।

खानाबदोश सी ज़िन्दगी में,
अपना आशियाँ बनाते हैं,
.... परिंदों की तरह।

ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में,
रोज़ नया मुक़ाम तलाशते हैं,
.... परिंदों की तरह।

अनजानी सी राहों में,
कितनों से कई रिश्ते जुड़ जाते हैं,
.... परिंदों की तरह।

किस्मत है वक़्त के भरोसे,
फिर भी कदम आगे बढ़ाते हैं,
.... परिंदों की तरह।

नियती है ज़िन्दगी की चलने में,
फिर भी कुछ पल रुक कर रास्ता तय करते हैं,
.... परिंदों की तरह।

दुनिया उलझी है रिश्तों में,
फिर भी चह-चहा कर मिठास घोलते हैं,
.... परिंदों की तरह।

छूटते रिश्तों के सफ़र में,
ज़िन्दगी बेफ़िक्री से जिए जाते हैं,
.... परिंदों की तरह।

Saturday 2 August 2014

तेरे बाद...

तेरे बाद...

हर चेहरा मुझे जाना पहचाना सा लगा...
कुछ यूँ हुआ एक तेरे मिलने के बाद।

ख़ुदा का नूर इतना मासूम भी होगा...
यह जाना मैंने तुझे से मिलने के बाद।

हम तो इश्क की बन्दिगी में मशगूल थे...
रूमानियत मुझ पे मुस्कुरायी तुझे छूने के बाद।

हर नज़ारा तेरे में सराबोर सा लगा...
तेरी इस जिस्म की हर महक के बाद।

मौसमों को रोज़ नए चाल में इतराते देखा...
सादगी में लिपटी इस हुस्न के बाद।

हम तो निकले थे खुदा को ढूंढने....
तलाश ख़त्म हो गयी तेरे मिलने के बाद।

चाहत...

चाहत...

हम तो बैठे थे कुछ लिखने को,
पर तेरी यादों ने मौसम-ए-इश्क को छेड़ दिया।

अभी कुछ अलफ़ाज़ ही उकेरे थे,
तेरी मौसिखी ने लफ़्ज़ों को ग़ज़ल में तब्दील कर दिया

उठ कर सोचा कहीं और दिल लगाऊँ,
तेरी खुशबु ने समां में नशा सा घोल दिया।

बैठा था तकिये के सहारे कुछ सोचने,
कमरे की हर दिवार ने तेरी शक्ल का रूप ले लिया।

अब कमरों को अँधेरा भी कर लिया था,
पर चाँदनी ने तेरे अंदाज़ में छेड़ना शुरू कर दिया।

इस चाहत का असर ख़ुदा के घर भी दिखा,
जब अचानक दुआ में मैंने तेरे नाम को पढ़ लिया।

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I share content and solutions for mental wellness at workplace! After spending a couple of decade in Retail Industry and Content writing, I am still writing! A Freelance Professional Copywriter, who is also an Author. If you are reading this, do leave your comments. Connect for paid projects. ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ Yahan wo har baat hai jisey aap sunne ke bajaye padhna pasand karte hain. Aapka saath milega toh har shabd ko ek manzil mil jayegi!